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कुछ यादों की डायरी : जनवरी 2021

कुछ यादों की डायरी : जनवरी!


सच्ची वाली बात कहूं तो मैं अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेस करने यानी कि जज्बातों को हवा देने मतलब कहने बताने सुनाने में इतना लुच्चा यानी कि कमजोर हूं कि कई बार लगता है मैंने सब कह दिया पर मेरी बात ही नहीं कही...! 

हां तो दिसंबर गुजरा, नया साल आया..! मतलब वक्त है वो थोड़े ना किसी के इंतजार में रुकेगा! हम तो ऐसे ही बेड पर पड़े हुए थे, फिर से उठने की तैयारी कर रहे थे। मगर जैसा की सर्वविदित है बस नया साल ही आया और कुछ नया ना था, पूरा 2020 ऐसे लग रहा था जैसे थम गया हो, युग गुजार लिए हो हमने और तो और अभी अभी ऐसा लग रहा था जैसे हम 2019 में ही जी रहे हों।

नया साल नई सौगातों के रूप में कुछ लेकर भी आता है, इसका एहसास भी खत्म हो चुका था क्योंकि मैं तो वैसे भी अपना नवरात्र चैत्र माह में मनाता हूं! ईश्वर को कृपादृष्टि से मुझ कुबुद्धि को थोड़ी सद्बुद्धि मिली जिसका प्रयोग हमने अपने से महान जीवों पर करना चाहा, मगर जिस प्रकार सूर्य ठंडा नहीं हो सकता, चंद्र गरमागरम होकर उबाल नहीं मार सकता, सांप दूध पीने के बाद भी विष उगलना नहीं भूलता ठीक वैसे ही महान व्यक्तियों को ज्ञान देना इस प्रकार की मूर्खता है जैसे आस्तीन में सांप पालकर स्वयं को चंदन वृक्ष मान लेना।

तो मूर्खों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने की होड़ में हमने भी अपनी राह चुन ली थी, सोच लिया था अब तो यही करेंगे, माने हमारे अंदर को ज्ञान का लावा फुटकर बह रहा था उसका कोई तो लाभ उठाए.. मगर बाद में ज्ञात हुआ कि हम तो सर्वसिद्ध मूर्ख थे मगर फिर भी हम क्या करते, अगर मगर जगण मगण तगण करके ज्ञान देने का प्रक्रम आगे बढ़ाते रहे जिसकी आवश्यकता सबसे ज्यादा मुझे खुद को थी।

लोग की आंखो में अपनापन और दिल में फरेब लिए सड़क पर उतर आए, बोल दिया देख हम तो तुम्हारे सच्चे वाले तुम्हारे हैं... (तुम्हारा काट के ही जायेंगे...!) पर कहते हैं ना होता रहता है, यकीन करो यकीन एक ऐसा जीव है जो घुट घुटकर मरता है और फिर मजाल की जी जाए, और लोग फिर उसी यकीन की ख्वाहिश तब करते हैं जब वो अपना दम तोड़ चुका होता है। 

ज्ञान की अद्भुत कंटक वर्षा के पश्चात हमने अपने हृदय के साथ धमनियों शिराओं तक को शूल से भेद लिया था, मगर मजाल की कोई हमारी हालत समझे, अजी छोड़ो मुझे खुद ही कौन सा पता था...! हालत वैसे भी खास अच्छी न थी तो जो अपनापन दिखाया लगा कि अपना ही है... मगर इस संसार में सभी को स्वार्थ सिद्धि की पड़ी है... अरे हां मुझे खुद भी.. सोचता था थोड़ा खुश रहना जरूरी है, मगर जालिम जमाना रहने दे तब ना..!

बाकी धीरे धीरे महीना बीतने हो गया, जो भी दिन त्योहार आए, खुशियां भी आती रही, हम तो ऐसे ही मुस्कुराते रहे, वो अलग बात है मुस्कुराना नहीं आता, बत्तीसी दिख जाती है हमारी...! तो धीरे धीरे यह महीना गुजर गया, क्या सीखा क्या भूला ये तो पता भी न था.... पर जो हुआ बस हो ही गया..!


क्रमशः...

#डायरी

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3 Comments

Seema Priyadarshini sahay

04-Jan-2022 01:52 AM

सुंदर लेखन

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🤫

18-Dec-2021 07:40 PM

Bahut badhiya diary lekhn mj

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Naymat khan

18-Dec-2021 06:46 PM

Good

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